Friday 30 March 2018

आजकल मशीनें पढ़ने लगी मन की बात ,,

आजकल मशीनें पढ़ने लगी मन की बात ,,
इंसान उन्हीं बातों का संदर्भ ढूंढता मिला ।।
भूल गया है भीगना विश्वास की बरसात में
हर जज्बात के शाब्दिक अर्थ ढूंढता मिला ।।

----- विजयलक्ष्मी



मन हुआ खेत उपजी अहसास की फ़सल ,,
शब्द शब्द बना बीज और संवर गई ग़ज़ल ।।
-------  विजयलक्ष्मी




जिस घर के भीतर कोई बच्चा नहीं रहता 
सामान उस घर का यूं बिखरा नहीं रहता ।

----- विजयलक्ष्मी



वो दूर नज़र से बैठ क्षितिज के उस छोर तक ,
दीखता है आँखों से जितना ,इतना ही संसार नहीं है
पसरा है नीलगगन दृष्टि से इतर भी बिखर बिखर
चलती हुई सांसो भर ही जीवन का अधिकार नहीं है 
कुचलते हुए चलते हैं धरा को कदमों तले सभी

सोचा कितनी बार धरा संग इतना ही व्यवहार नहीं है
बिखरी खुशबू के संग मिली पवन बावरी सी हो
छुआ जितना उसने मुझको इतनी ही बयार नहीं है
उपवन के खिलते पुष्प जितने मिले गले अपने
खिलना मन का ही ,, केवल इतना ही संस्कार नहीं है
जिन्दा सांसो संग रहकर जितना मापा सागर सा खुद को
सच बतलाऊ लगता है ,, जीवन का इतना सा ही सार नहीं है ।

-------- विजयलक्ष्मी

Tuesday 20 March 2018

ए रात उठ चल नाच ,, 39 भारतीयों को श्रद्धांजली ..

ए रात उठ चल नाच ,,
काली अँधेरे से घिरी गलियों में नाच
चले है अहसास की आंधी तू नाच
होक मेहरबाँ तू नाच ..

तारों के शामियाने लगे हैं वहां
अंधियारी हुई आँखों में दर्द की बारात
इन जख्मों पे होक फ़िदा तू नाच
ए रात उठ चल नाच ..

जश्न मनाया होगा इंसानियत के दुश्मन ने
मौत को भी घेरा होगा उसकी वहशत ने
मुलम्मा चढ़ा राजनीती का तू नाच
ए रात उठ चल नाच ..

कोई फतवा नहीं आएगा तेरे खिलाफ
गूंगे हुए हैं फतवादार सभी आजकी रात
उनकी चालाकियों की ताबिरी पे नाच
ए रात उठ चल नाच

दर्द की बहती नदी पर लगा पैरों की थाप
जलती हुई बस्ती है इंसानियत की आज
जश्न का पैगाम सुना तू नाच
ए रात उठ चल तू नाच

मेरी बगावत की जहरीली स्याही में तर
पढ़ अब पंख काटते हुए आँखों के हुनर
उठने से पहले होश तू नाच
ए रात उठ चल तू नाच

शहजादी वक्त की लहू की नदी में नहाकर
गुजरी थी उसी दरवाजे जहां बैठे है दगाबाज
कभी उनकी कफन पर रख पाँव तू नाच
ए रात उठ चल तू नाच ||
--------- विजयलक्ष्मी



जिंदगी के कुछ और बिखरती सांसों का मना ले जश्र ,
हंगामा नहीं बरपेगा यहां होगा सीधा तेरी मौत का जश्न ।।

------ विजयलक्ष्मी

Thursday 15 March 2018

पनस ,रसाल और पाटल

 मानस अनुसार पहला पाटल यानी गुलाब का पुष्प गुलाब पे पुष्प तो आते है और बहुत सुंदर भी होते है सबका मन मोहते है पर फल नहीँ आते इसी तरह कुछ लोग कहते तो बहुत कुछ है पर करते कभी नहीं , अब दूसरे तरिके के लोग रसाल यानी रस से भरा हुआ जैसे आम अब आम के वृक्ष पे फूल भी आते है और फिर फल भी आते है इस वर्ग के पुरुष कहते है और करते भी है अब तीसरा शब्द पनस इसका अर्थ है कटहल इस वृक्ष पे फूल नहीँ आते सीधे फल लगते है इस वर्ग के पुरुष कुछ कहते नहीँ कभी शेखी नही बघारते बस करते है इन सभी में उत्तम वर्ग पनस वर्ग के पुरुष है तदोपरांत रसाल फिर पाटल ||

Tuesday 13 March 2018

क्या टूटने के डर से ख्वाब देखना छोड़ दूँ ...


क्या टूटने के डर से ख्वाब देखना छोड़ दूँ ... मौत के डर से जीना छोड़ दूँ .. पतझड आयेगा जीवन में ..रंग भरना छोड़ दूँ .. जानी है सांसे इक दिन तो लेना छोड़ दूँ ... इंसान हूँ भला कैसे कोशिश छोड़ दूँ .... .. तुलिका उठी है तो कोई रंग तो भरेगी.. आंगन को थोडा ही सही रंगीन तो करेगी , कुछ और न सही लहू संग सिंचेगी तुम भूल गयी हों अपने बचपन का आंगन नए साम्राज्य का दम्भ ,वाह .. .. अधिकार का कितना घिनौना रंग तुष्टि अपनी ,सखा के घर उजाड .. करो मन लगती सी बात और पीछे करती हों घात ... उजाड़ने का सभी समान साथ है .. बस कुछ मीठी मीठी सी बात है ... .. स्वार्थ की खातिर सिंहासन पे बिठा दिया .. उसी के घर को उजाड़ बना दिया .. कैसी है ये प्रीत, कैसी दुनिया की रीत अपने घर का शासन देकर जड़ से जुदा कर दिया वो कैसा नादान समझा न अब भी राज ... .. ..जल डालना है गमलों में मेरा कर्म है जंगली पौध इतनी आसानी से मरती नहीं है .. बंगलों के पौधे ही सुना है मर जाते है जल्दी वो पोषित होते है माली से .. जंगली बयार ढूंढ ही लेगी राह अपनी ज्यादा न सोच .. सोचा जिन्दा सा हूँ किया है बसेरा .. कुछ रंग भर दूँ मौत से पहले .. यादों को कुछ काले श्वेत ही सही रंग दूँ .. जो जिसके साथ वही देकर जाता है .. खारों के संग चुभन तो होगी .. .. जाने कब बुलावा आ जाये पुनर्जन्म फिर हों पावे की न हों पावे .. हाँ ,सच है आँगन सुंदर है सखी .. मन भाया था ,सच है झूठ कैसे कह दूँ अब क्या और कहूँ तुझको गर न समझो तो .......-विजयलक्ष्मी

Monday 12 March 2018

दिखाए पैमाने ईमान के ऊँचे ख्वाब में ...

दिखाए पैमाने ईमान के ऊँचे ख्वाब में |
हकीकत की जमीन पर लुडके फिर रहे हैं ||
खोदे थे गड्ढे गहरे औरो तले जमीन में |
लडखडा के देखिये अपने आप गिर रहे हैं ||
ये बहारों के मौसम कभी हमारे भी होंगे |
यही सोच लिए ख्वाब पलको पे तिर रहे हैं ||
कुछ तो कुसूर है इस दिल का भी जरूर |
अहसास के समन्दर तूफान से घिर रहे हैं ||
चरित्र लापता जमीर खो गया ईमान से |
दोगली बाते करते हुए लोगो से घिर रहे हैं ||
--- विजयलक्ष्मी

तोडना है नींद से रिश्ता ,,

तोडना है नींद से रिश्ता ,,

ख़्वाब दिखा ही जाती है ..
पुरनम से दिन को भी
अमावस बना ही जाती है ||
अब इस अंतरमन की चीख 
समझता ही कौन है ,
पहले चुप थी धरती
आसमां भी हुआ मौन है ?
सुनो,ये जो खत पढ़ते हो
ये आदत न छोडना तुम
छूअन का अहसास भी
खुद को ही कराओगे ||

रहें जिन्दा गर कहीं
दूर होकर भी हम
कहो ,बातों पे हमारी
कैसे कहकहे लगाओगे ||

वो ऊँचे चिनारों में आवाज
मुझको सुनती लगी
बिखरी है आग हर तरफ
कब भला बुझती लगी ?

हिमाकत न हो ख्याल में भी
दीवार उंची रखनी होगी
वो उस छोर टंका है सितारा
उसको ही पकडनी होगी ||
आँख नम है कि बिखरा समन्दर
लहरों को थाम लिया ..
नदी बनकर बही कैसे
कैसे किनारों का नाम लिया ?

रेत के घरौंदे थे सूख गये
हवा के साथ यूँही टूट गये
यार हलकान हुआ क्यूँ तू ...
क्या सांसो के सम्बन्ध रूठ गये ?
एक तस्वीर ताबीर हुई थी
रेशा रेशा रंगी है ..
उतरी नहीं टूटकर भी ..
निशानदेही पर लगती टंगी है ||
------ विजयलक्ष्मी