Sunday 4 June 2017

बताओ तो मेरी वसीयत लिखूं तो मगर लिखूं क्या ,,

बताओ तो मेरी वसीयत लिखूं तो मगर लिखूं क्या ,,
जिन्दगी नाम ए वतन जिसकी वसीयत में लिखूं क्या --- विजयलक्ष्मी







गर गुनाह है मुहब्बत तो ऐसा इक गुनाह हम भी कर बैठे,,
अजी, दोस्तों के जुल्मों सितम से तंग नामे वतन मर बैठे |------- विजयलक्ष्मी





चाहत वजाहत और जिंदगी ,
लो वफा की हुयी पूरी बन्दगी ..------ विजयलक्ष्मी




न द्वंद है न कोई विरोधाभास है ,
धरती गगन का आपसी विश्वास है 
हरित है धरती क्यूंकि प्रकाश है 
धरती के परीत: पसरा आकाश है --- विजयलक्ष्मी





आज वृक्ष नहीं काट रहे हो आप 
अपने बच्चो की जिन्दगी समाप्ति की ओर ले जारहे हो ,
न वृक्ष होंगे न ऑक्सीजन ..
न जिन्दगी बचेगी न आपके वंश |
मर्जी है आपकी ...समझ है कल की औलाद के बाप की 
भुगतेंगे सजा सबके बच्चे आज के महापुरुष पिता के पाप की
काटो जंगल ..मैदान बनाओ ,,
जमीन वृक्ष होने से क्या मतलब बस दौलत बनाओ ..
दौलत से गेहू उगेंगे तिजोरी में ,
दौलत से ऑक्सीजन बनेगी तिजोरी में
दौलत से सेहत ,दौलत से मुहब्बत ..
दौलत से ही इमानदारी मिलेगी टैग लगाकर
दौलत ही बांटेगी प्यार दौलत से इकरार ,,
दौलत से त्यौहार ..

दौलत ही बनेगी वंशबेल यार रहेगी तिजोरी में --- विजयलक्ष्मी








सेलेब्रिटी क्यूँ बनाते हो किसी को 
क्या उन्हें तुम्हारी कोई चिंता है ? ... 
इन्हें आपके स्वास्थ्य की नहीं अपनी जेब की चिंता है 
कोई आपको गोरा करने के एवज में कमाई दौलत से ऐय्याशी करता है 
कोई फास्टफूड को न्यूट्रीशस बताकर सेहत से खिलवाड़ करता है 
कौन है जो तुम्हे सीधी राह बतात्ता है ...
देशभक्तों को भूल झूठे प्रतीक घड़ने वालों ..

लक्ष्मीबाई भगतसिंह के देश को गर्त में मत मिलाओ
गौर करो जीवन को यूँही किसी के कहने से व्यर्थ न गंवाओ
इनकी बातों पर न जाना इनके कहे कुछ यूँही मत खाना
इनका तो काम ही है जनता का उल्लू बनाना
विश्वास न हो तो पेप्सी कोक को टॉयलेट में डालो
मैगी पिज्जा खाओ और डॉक्टर को मेहनत की कमाई दे आओ ---- विजयलक्ष्मी






कालबाधित कलम टूटकर गीत गाती गयी तभी और ..
सहमा सा सत्य साथ चल पड़ा ...
पहुचता भी कैसे भला सत्य अपनी मंजिल
राह में पकड़ने वाले खड़े, थे शातिर बड़े
चमगादड़ो के शहर में सन्नाटा तो नहीं था
संगीत बज रहा था फिर भला वीणा कैसे टूट गयी
सरगम कैसे छूट गयी ..
न सिद्धांत है न वेदांत है बस ...एक अजब सा अँधेरा है
और सूरज छिप गया समन्दर में ..
नूर बस गया अंतर में
काश सुनते सन्नाटे को ...रौशनी ढूढने वालो
नदी बहती है जैसे जिन्दगी बहती है
अहसास के भंवर साथ चलते हैं ...कश्ती सी याद लहर लहर चलती है
लिए वजूद है राग औ बन्दगी का
जहां एक ही स्वर गूंजता है जिन्दगी का ..
सृजन हो या विनाश ..पूरक या अधूरे से
सोचकर देखना कभी ...
महसूस करना इस अहसास को,
रास्ते में मेरी आवाज न खोई अगर .- विजयलक्ष्मी




यादे कहाँ है
अभी भूले तो होते
अहसास के झूले और झूले होते
काश ..दफन हो पाते
कब्र में तो चैन से सो पाते 
हर टुकड़ा खनक उठता है
खिसकते वक्त के साथ
वक्त की धार पर सवार
बेचैनी को बढ़ा देता है
मुस्कुरा उठते है
आहत सी आहट होती है
और ..
आइना सामने हो जैसे
मगर ..
उसमे हम नहीं ,,,
वहीं है ..या ..तस्वीर
या नजर का फितूर
मुझको नहीं खबर
और सुर सजने लगते है
साज बजने लगते है
धडकन कहती है ..
" में ही तो हूँ "
तुझमे बहते लहू के साथ
दिल पर लगती हर थाप के साथ ..
बस ..कोई नहीं है ..
रूह बनकर बसने वाले ..
खबर तो कर खैरियत की ,
यादे कहाँ है
अभी भूले तो होते
अहसास के झूले और झूले हो होते
काश ..दफन हो पाते
कब्र में तो चैन से सो पाते
हर टुकड़ा खनक उठता है
खिसकते वक्त के साथ -- विजयलक्ष्मी


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