Thursday 16 February 2017

" बड़ा अजब है प्यार







" बड़ा अजब है प्यार 


अजाब भी है प्यार



लाजवाब भी है प्यार 

जाने क्यूँ फिर कहते स्वार्थ भी है प्यार 

मर्यादा भी है प्यार 

जन्म भी है इकरार भी सुना है 

इंकार भी कहा है 

कोई त्याग को कह रहा 

कोई अहसास में गा रहा ,,

कोई मजहब में ढूंढता 

कोई वंशावली में खोजता 

कोई रोटी में जा बसा 

कोई दौलत में पा गया 

कोई नफरत गिना गया 

कोई सूफियाना बता गया
कोई ढूंढता है गली गली 

कोई दर्शन का बना वली 

कोई चांदनी में नहा गया 

कोई रागिनी में कह गया 

कोई रंग में ढूंढता है 

कोई इबादत में पूजता है 

कोई पाकर भी खो रहा 

कोई खोकर भी हंस रहा 

कहाँ देखूं जहाँ प्यार नहीं मिला 

कभी बंदूक की गोली या खंजर से पूछिए 

कभी बहते हुए आँख के समन्दर से पूछिए 

कभी शब्दों की कमान से पूछिए 

कभी खेत औ खलिहान से पूछिए 

कभी गैया के रम्भाने में ढूंढिए 

कभी गौरैया में ढूंढिए 

कभी बच्चे की किलकारी से पूछिए 

कभी छान से टपकती बूँद से पूछिए

कभी लहर से पूछिए 

कभी सहर से पूछिए 

कायनात गा रही है 

मन को लुभा रही है 

फिर भी न जाने क्यूँ नफरत बढती ही जा रही है 

हर रंग में रंगा ,,

हर कदम पर दिखा 

जिन्दगी में दिखा 

मगर फिर भी किसी को नहीं मिला ..

तभी तो कहती हूँ मैं 

बड़ा अजब है प्यार 

अजाब भी है प्यार

लाजवाब भी है प्यार 

वाह रे प्यार 

ईश्वर की प्रद्दत हर वस्तु में तू समाया ..

है हर दिल में तेरा ही सरमाया 

हुई कैसी नियत इंसान की 

बस ...." तू ही नजर न आया " ||"

 - विजयलक्ष्मी






....


 नजर चाहिए बस ,,
-------------------------


हमे भूख में भी दिखा ,,

हर दुःख में गले मिला 

कभी देखना गौर से ..
मौत के मंजर में प्यार ही रोता मिलेगा 
तन्हाई में भी बसा ,,
कभी दर्द बनकर रहा 
कभी दोस्त की दोस्ती 
कभी नजर से छू गया 
कभी दिल को मृदंग बना गया 
कभी ढुलका आंख से 
कभी इन्कलाब सा जला 
कभी इंतकाम बन गया 
कभी जीवन दांव पर लगाया 
कभी इम्तेहान बन गया 
कभी रोका है देहलीज पर 
कभी याद बन गया 
कभी रूठता दिखा 
कभी बातो में जा बैठा 
कभी खुद में मिला एँठा 
ढूंढ कर तो देखिये ,,
झोपडी में मुस्कुराया भी 
लजाया भी 
महलों में कई बार मुरझाया भी 
सडक पर बिन छाँव के 
कच्ची सडक पर गाँव के 
उन धूल भरी राहों में
कवियों की आहों में 
कभी प्रियतम की निगाहों में 
कभी प्रिया की बातो में 
कभी रसीला बनकर 
कभी लजीला बनकर 
बस नजर का सवाल है 
कितनों ने किया हलाल है 
फिर मर नहीं सका ..
बहुत बेमिसाल है 
सदाबहार जलती मशाल है 
बस हर शै में दीखता प्यार है ||
 --- विजयलक्ष्मी









जर्रे जर्रे में बसा और जमाने में ढूंढता ,,
पा जाता कभी का गर तू खुद में ढूंढता || 
-- विजयलक्ष्मी








"विरही मन
" अमीत "
टीसते राग गीत 
बिछड़ती रुबाइयाँ 
संवरती तन्हाईयाँ 
उखडती सांसें 
कुलबुलाती यादे 
बिलखते आंसू 
सूना आंगन 
रात अमावस 
पावस ऋतु झरझर 
बिखरते अहसास 
बिफरती प्यास ..लिए आस 
हम तुम साथ "
अब खोजते है लाशों में ही प्रेम
क्यूंकि ..
जो जिन्दा दीखते है 
जिन्दा ही नहीं है 
क्यूंकि ..
नफरत जितना 
उनमे प्रेम नहीं है 
क्यूंकि ..
गिनती सीधी कहते दीखते है किन्तु
 उलटे हैं खुद में 
क्यूंकि ..
उन्हें प्रेम नहीं
 स्वार्थ पूर्ति की तलाश है 
क्यूंकि ..
चुराए गये है 
जो ख्वाब अपने नहीं उनके 
क्यूंकि ..
दिखाए हुए सब्जबाग 
सच्चे नहीं जिनके
क्यूंकि ..
मुर्दों में ही बस गया है 
पूर्ण तत्व शुन्यता का 
क्यूंकि ..
शक्ति विहीन शिव ही तो शव है 
क्यूंकि ..
प्रेम में अकड़ा है 
किसी और ने नहीं पकड़ा हुआ है 
क्यूंकि ..
जीवन-सार उसी में समाया 
क्यूंकि ..
उसी ने प्रेम में पड़कर 
खुद में जलना सिखाया
क्यूंकि ..
लौटने की सम्भावना समाप्त उसी मार्ग से चलता है 
अनंत की ओर 
क्यूंकि ..
वही है आराध्य कृष्ण की राधा 
राधा के कृष्ण 
क्यूंकि ..
अनंत प्राप्ति के बाद अंतहीन हो जाना
बनाता है प्रेम को सार्थक. 

--- विजयलक्ष्मी




गिनती नहीं आती ..
हिसाब नहीं रखती थी 
भूला भी नहीं जाता 
हर लम्हा अभी बीता सा लगा 
तिनका तिनका बटोरा था
संवारती थी जतन से
सहेज रही थी प्यार से
अपनत्व के तिनको को समेटने की चाह में
सबकुछ भूल ..
भूल में ही भूल से भूल कर बैठी
एक होने की चाह ...विलगाव ..
उड़ान ...बनी पतन
हौसला बना मझदार ..
पंख कुतरे नहीं जल गये
या ..नुच गये ...टूट गये या ..
लहू तो बहा
घायल भी हुए
जख्म मरहम से हुए ...
मरहम जख्मी दिखता है खूंरेज ख्वाबों से
वो तिनके बिखर गये ...रेजा रेजा
तूफ़ान से ..
पिंजरे से नई नई निकली थी
दुनिया की रीतों से अनजान थी
पेड़ पर लटका वो घोसला
गुनगुनाती धूप थी आंगन में मेरे
फूलों की महक थी
ठंडी बयार थी
और चोच में कुछ तिनके
जब तुमने पकड़ा
रह गया वो स्वप्न अधूरा सा लटका
सूरज भी छिप गया ..
बड़ी बड़ी इमारतों के पीछे ..
अँधेरा गहरा गया ..हौसला टूट गया
तिनका छूट गया
दिन या बरस नहीं गिन सकी
अहसास नहीं बीन सकी
और बिखर गया
चिड़िया की आँख में बसा
.... घोसला ..
खो गया हौसला
और ..अब ---
पिंजर पड़ा है पिंजरे में .


--- विजयलक्ष्मी


सिमटती इच्छाए 
घनीभूत होकर 
आच्छादित हुई 
स्वप्न बनकर ,,
बरस गयी जैसे ..
नयन में चुभन थी ,,
और ..
तकिया भीगा हुआ था ,,
जब आँख खुली
भोर में
स्मित सी बिखर गयी
महक उठी थी पारित:
चुभन भी अपनी सी लगी ,,
काश ,,
फिर.. फिर गुजरे वही पल
नयन में
हुक सी उठी इक ...
मन में
और पलक ढल गयी ,,
मद्धम सी
बिन प्रयास ही ..
यद्यपि ..
उँगलियाँ प्रयासरत थी
गालो पर पड़ी लकीरे हटाने में
और ..
अहसास को 

जैसे सुकून के कुछ पल मिले थे
सदियों के बाद
इस गुजरते से पल में
कैसे करूं ये गुजारिश
न पूछना मुझसे
मेरे तकिये पर नमी क्यूँ है ?


 --- विजयलक्ष्मी




Wednesday 15 February 2017

" चमक उठा श्री हरिकोटा "

जयहिंद !!
" पेंग बढाई अन्तरिक्ष में औ दिया गजब का झोंटा 
एक सौ चार उपग्रह संग चमक उठा श्री हरिकोटा
"
-- विजयलक्ष्मी


जिन्दगी जिन्दा रहती है जमीर से ,,

जिन्दगी जिन्दा रहती है जमीर से ,,
राजनीति जमीर खा रही है आजकल ||

जरा देश से मुहब्बत करके तो देखिये
मुहब्बत ही गोते खा रही है आजकल ||

भूख खड़ी ही मिली बेहया सी खेत में
दूध,इक वक्त में माँ बिक रही है आजकल||

बड़ी मीठी सी महक है गाँव की गली की
शहर की सडक महक खा रही है आजकल ||

यहाँ देह को गिनता ही कौन है इश्क में
वफा भी आत्मा को मना रही है आजकल ||

प्रदेश की कसौटी पर भी नशा चढा मिला
शराबी की संगत ढूंढ रही है आजकल ||

स्वार्थपूर्ति में नेता करते मिले कमाल
जनता हर ढंग में कट रही है आजकल ||

दागियों ने मन्त्र फूंक दिया है इसतरह
झूठ की चादर ईमान बनी है आजकल ||

न्याय बिका गाँधी की तस्वीर टांगकर
जानवर तक ख़ुदकुशी कर रहे हैं आजकल ||

ज्योति देशप्रेम की बुझ-बुझकर जल रही
देशद्रोही टोली भी मत मांग रही है आजकल ||
---- विजयलक्ष्मी

Monday 13 February 2017

" अब समझे हैं सबब उस बात का पल भर पहले "

अब समझे हैं सबब उस बात का पल भर पहले
जिंदगानी की तस्वीर बदलती है पलों में क्यूँकर ||

क्यूँ कहते थे भरने है कई रंग नए हमको अभी 
जान हाथों में है अभी बाकी कहा था ये क्यूँकर ||

टूटे या रहे कलम मेरी क्या फर्क हीं तुमको अमीत
तुम्हें जाना है चले जाओ हम मरें या जियें क्यूँकर ||

जिंदगी मौत से बदतर हों भी जाये तो गम क्यूँ
जीना बाकी और भी रंग है बाकी जियेगें ही क्यूँकर||

खामोशियों को आवाज नहीं देंगे नाम से तेरे
बर्बाद होना था तो भला आबाद अब होंगें क्यूँकर  ||
---- विजयलक्ष्मी

Thursday 9 February 2017

" गाँधी जी की जरूरत "

" गाँधी जी की जरूरत 
कभी नाम के लिए ,,
कभी आराम के लिए 
सोची नहीं कभी ईमान के लिए ,,
रखी सम्भालकर बकरी की वो रस्सी 
खो गयी मगर बुनी जो भगतसिंह के वास्ते ,,
किसने की मुखबिरी आजाद के लिए ,,
कराओ तलाश उसकी भगवान के लिए
क्यूँकर गिरा जहाज ,,क्यूँकर मरे सुभाष ,,
लड़ते रहे जो देश के जवान को लिए ,,
न बिस्मिल की याद आई ,,
न महामना दिए दिखाई ,,
महाराणा की कहानी अधूरी क्यूँ सुनाई ,,
क्यूँकर बंटवारा देश का रास आया
कैसे किये वचन किसका था वो परछावा
राम की धरती किसने भेंट चढाई
लुटेरे और आतंकी हुए सभी आतताई
ताशकंद की घटना कैसे अंजाम पाई
सत्य छिपाया किसने ,,
गुनहगार कौन था ,,
ढूँढना होगा सत्य ,,इतिहासकार कौन था ,,
किसने झूठ बांचा ,,किसकी बिकी कलम थी ,,
वो कौन था जिसमें सच्चाई कम थी ,,
कातिल के साथ कातिल ,,न आँख नम थी ,,
पर्दे उठने चाहिए ,,
झूठ मिटने चाहिए ,,
पुराने सफे कभी तो पलटने चाहिए ,,
उलझे हुए पल सुलझने चाहिए ,,
ये अधिकार है हमारा ,, और कर्तव्य भी यही है ,,
कालेपानी में किसको क्या भोगना पड़ा ,,
किसने देशद्रोह किया ,,किसे सत्ता से प्यार था ,,
किसने ब्याहा आजादी को ,,
किसने लहू से दुल्हन सा श्रृंगार किया ?
-------- विजयलक्ष्मी

" सुना है चाँद को नुमाइन्दगी ए मुहब्बत "

सुना है चाँद को नुमाइन्दगी ए मुहब्बत
श्वेत वर्णा चांदनी भी दाग न छिपा सकी ||

चुभन हुई पलक पर आँख में स्वप्न सी
नदी बन संवरी, खारापन न मिटा सकी ||

भूख मिली बिखरी मुखिया के द्वार पर
करोड़ो डकारे गये ,,गरीबी न हटा सकी ||

इज्जत औ इजाजत को गुलाम न समझ
नियत का खोट तेरी ,बाते न समा सकी ||

ईमान दिखाने को नहीं निभाने की बात है
तेरे झूठ की नदी,, किनारे न बना सकी ||

मांगता न सबूत कभी तू खुद को भी आँक
झूठ की झड़ी जमीर की भूख न मिटा सकी ||

पद-गरिमा का बखान शोभा नहीं देता
अपनी करनी तेरी फजीहत बचा न सकी ||

जिसकी सरकार "अच्छे दिन " पूछता फिरे
कितना ईमान बाकी है आइना न दिखा सकी ||
-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 8 February 2017

" काटा गया इंसान हर बार,,वोट,वाद पर .."

" कभी जातिवाद पर कभी आतंकवाद पर ,,
काटा गया इंसान हर बार,,वोट,वाद पर ..
साम्प्रदायिकता पर कभी या वंशवाद पर,,
लुटती रही जनता सुन चोट गरीबवाद पर
जेबें फटी है मगर घूमते विदेश हैं साहिब ,,
हवाई चप्पल पाँव में मौज छुट्टीनाद् पर
किराए नहीं पैसे दिखावा मैट्रो सवार हुए
बेतुके इंसान सभी है राष्ट्रिय-विरोधवाद पर
केसरिया रंग जाने कब आतंकी हो गया
झगड़ा नहीं आतंकियों के मजहब-निनाद पर
जहां शांतिदूत बन्दूकों के साथ चल रहे हैं
खाली हाथ केसरिया रंग आतंकवाद पर
जिनको दी पनाह वो कैसे मालिक हो गये
जान औ माल सुरक्षा भी ठहरी बवाल पर
कभी कैराना कभी आसाम कभी बंगाल में
ढूंढिए जनाब पुरखे मिटे किस जंजाल पर
मैं नहीं ,थी पीढीयाँ अपनी भी युद्ध में ..
पायी है आजादी पूर्वजों ने खेलकर जान पर
बहुत हुआ आतंक अब और कितना सहेंगे
जिन्दगी भी कैसे कबतक रखेगी सम्भालकर ||
" ------- विजयलक्ष्मी

Saturday 4 February 2017

" आजादी के सीने में घुटती चीख सुनो तुम ,,भूकम्प तो आया ,,बदस्तूर ........||"


भूकम्प तो आया ,बदस्तूर आया ,, लेकिन पाले बदल बदल कर ,,, जहां आना था नहीं आया ,,, धरती तो कांपी जोर से ... अस्तित्व के हिलने का अंतिम कगार का चेहरा मोहरा दर्शा कर गया ,,, दो -दो भूकम्प आये संसद के अंदर भी ...और संसद के बाहर भी भूकम्प था ,, पत्रकार और नेता रूपी डॉ और नर्स अपनी अपनी कैची लिए टटोल रहे थे ,,, कौन सी नस काटे जिससे साँस बंद हो जाये ... सरकार की और लोकतंत्र जो युवा हो रहा है उसे फिर से मृतप्राय कर बोरी बंद करके रख दे जैसे बरसों से किया था .......... लेकिन समय बदल रहा है ... सोच बदल रही है ...
वंशवाद की स्पष्ट रेखा क्रम को समझ रही है ,,, कोंग्रेस को पिछले चुनाव में ऐसा ICU में भर्ती किया है ..... पुराणी बिमारियों का इलाज किया जाना है ,,,
पुरानी जन्मो पर हुई विकृतियाँ ,,, तभी स्वस्थ्य लोकतंत्र पैदा किया जा सकता है .... विकृत बीमार जननी के बच्चे दिव्यांग या बिमारीग्रस्त ही रहते हैं .... या चोर उचक्के ,,अजब अजब औलादों ने जन्म लिया ... इस जननी का दावा कल सुसंस्कृत दाई के हाथो हुयी जाँच में हुनरमंद बैद्य की तरह नब्ज पकड़ी और जननी और औलादों की गिनती शुरू हुई ......... लोकतंत्र के नाम पर उपजे .. वंशवाद ,, आपातकाल ..मजहबवाद ,अंग्रेजियत गांधीवाद ,,लूटवाद फूटवाद जातिवाद खादीवाद ,, टूजी थ्रीजी ,, जितने भी अचारविचार भ्रष्टाचार थे अधिकार कर्तव्य के व्यक्तिगत कानूनची पर्सनललाज बायलाज लालसलाम ,370 जितनी भी औलादे गिनाई .......... उनमे लोकतंत्र का नाम तो था लेकिन वो खुद नदारत था ,,, सेकुलरिज्म के नाम पर साम्प्रदायिकता के साक्ष्य मिले ,,, इतिहास अपनी सुरत पर रो रहा था कोने में पड़ा हुआ .... जिसपर हर किस्सा कहानी महज जबानी था ...और वसीयत खानदानी हो चुकी थी ....... और सहायक बेचारे उठाकर भाग भी नहीं पा रहे थे ........ लग रहा था सर धुन रहे हैं किस घड़ी में मुद्दे बेमुद्दे हुए ... ये नया वैद्य तो नब्ज पकड़ते ही बीमारियाँ गिनाता है ........ दीखता चुप है इलाज क्या करेगा नहीं मालूम लेकिन बीमारी जड़ से खत्म होगी इसकी गारंटी दे रहा है ........अमा यार कोई तो बचाओ ..... ये बचायेंगे क्या ... वैसे शहीद भगतसिंह ,,चन्द्रशेखर आजाद बिस्मिल जी असली नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी के संग अनेक शहीदों की आत्मा मुस्कुराई जरूर होगी ,,इस बात की शर्त लगा सकती हूँ ........ हर शब्द पर खिलखिलाए होंगे गाँधी जी ...... यह सोचकर जब भंग करने को कहा तो कोंग्रेस भंग नहीं की गयी न अब भुगतो पुराने घोटालो का भी मजा ,,,,, वरना अमर रहते इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा नाम यूं तो मिटटी में नहीं मिलता ,,, जनता से निसर्ग किया था ,, संसर्ग के स्थान पर अब इज्जत का फलूदा बना जा रहा है ,,, स्वस्थ्य लोकतंत्र तो जन संसर्ग से ही मिलेगा ........ आत्मा को नैसर्गिक करना होगा ,,,, अन्यथा ये बैंड तो यूँही बजेगा और हर बार आरती उतरेगी लेकिन ...वरमाला वही पड़ेगी ....दूल्हा यूँही नहीं बदला था ... दो साल पहले की गैस की लम्बी लाइन याद आगयी अचानक ........ नोटबदली में पचास दिन में तो लाइन से फारिग हुए ........ पहले तो गैस की लेने कभी टूटटी ही नहीं थी ,,, देह टूट जाती थी ,,,दिन निकल जाता था लेकिन ....रोटी बनेगी या नहीं .......नहीं मालूम था || इतिकृतम ||
-------- विजयलक्ष्मी

" आजादी के सीने में घुटती चीख सुनो तुम ,,
देखो उसके सीने सांसे कितनी बाकी हैं ,,
कुछ ख्वाबों को चुनकर उन आँखों पर धरना था 
भीगी पलकों के खारे जल से शुद्ध जहां करना था 
देशराग गूंजता है लहू के संग टकराकर मेरी धमनी में 
देता है टक्कर रह-रहकर इस दिल की दीवारों पर
और आँख धुंधलाई ठहरी है टिककर ..
खौफ है नजर से वो इक तस्वीर न धुल जाए ,,
बंद मुट्ठी का इक अधुरा सा ख्वाब न खुल जाये ,,
रणभेरी बज उठे तो फिर आराम कहाँ ,,
उठ खड़े होकर लड़ो ,,स्वाभिमान के लिए जीवन बना संग्राम यहाँ || "
--- विजयलक्ष्मी

Thursday 2 February 2017

" बेगैरत ये दुनिया,सफेद झूठ बोलती है ,,"

" बेगैरत ये दुनिया,सफेद झूठ बोलती है ,,
कल थी चुप्पी ओढ़े आज अहसास तौलती है ||

ढूँढने खजाना तोड़े दर औ दीवार,मेरे घर
बादलों पर पार नहीं बाढ़ को ट्यूवेळ खोलती है||

मांगी कब दौलत, अहसास खजाना संग
खामोशी भली,फरेबी तरीके विश्वास तोडती है ||

यूँही ताले तोड़ने वाला चोर कहा जाता है
पुलिस भी ताले बिना वारंट के कब तोडती है  ||

जिसने चखी है ख़ामोश तन्हाई मन की
पूछकर देखते उसी से शहनाई कैसे बोलती है || "
 ---- विजयलक्ष्मी