Wednesday 10 August 2016

" हथेली पर लकीरे उखड़ी पड़ी है "

हथेली पर लकीरे उखड़ी पड़ी है 
बरसात गिरने से टूटी हुई सडक जैसी
गीली होकर बहती हैं पथरीले टुकड़ों सी
बंजर कह दूं कैसे ....?
दर्द की पौध पनपकर महका रही है चहुँऔर पवन 
लगता है समय शर्मिंदा होना चाहता है अपनी करनी पर
समन्दर को घमंड था रत्नों के भीतर होने का ,,
मंथन कर दिया ...और लूट लिया ,,राक्षसों के सहयोग ने ,,
नहीं सोचा ..क्या अमृत के हकदार होंगे कभी ...
नदियाँ को तो बहना है ...कभी पथरीले पहाडी रास्ते से
कभी रेतीले बंजर धरती सी पठारी रास्ते
हर एक राह जैसे मंजिल की तलाश में है ..
मगर कुछ मंजिलें ही लापता हैं ...
यही सच है ... जो जिन्दगी को लील जायेगा एकदिन
और खो जाती है पत्थरों और रेत के बीच ..
समन्दर हिस्से में नहीं होता
मिट जाती हैं यूँही घुलकर ..
किसी ब्लेक हॉल में जैसी
------ विजयलक्ष्मी




रियासत की सियासत सीढियों पर बैठ पीढियों को गिन रही ,,
भूल बैठे हैं लोग यहाँ ........ अपनी पीढियां न बनाने वालों को --- विजयलक्ष्मी




छलक पड़े न गम पलकों से तन्हाई ,दूरियां भली ,,
मुहब्बत की बयार रूकती कब है जो इक बार चली

वक्त ही दगा दे तो जिन्दगी भी आँख फेर लेती है
वफा भी तो मौत का दामन थाम तज संसार चली
-------- विजयलक्ष्मी

1 comment:

  1. छलक पड़े न गम पलकों से तन्हाई ,दूरियां भली ,,
    मुहब्बत की बयार रूकती कब है जो इक बार चली

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