Saturday 30 April 2016

" प्रकृति से दूर जीने की चाहत में ...प्रकृति का अनादर करने लगे,,"

आँखों में नमी है भी तो क्या ...
होठ मुस्कुरा उठे ..
तुम्हारी इक इक ख्वाहिश पर जीने को दिल चाहता रहा सदा
शब्द ही नहीं मिले ...कभी इक मुस्कुराहट उभरती रही
कुछ यादे कुछ यूँही की बातें हमने ,,
कभी नाराजगी को भी सजाया बन्दनवार बनाकर
मगर...फिर भी ,,
सिलसिला मुस्कुराहटों का नहीं टूटा
समय की बिजली कडकी और स्याह स्याही बिखरी अहसासों पर
जल गयी जिन्दगी ... पुष्प सा खिलने की चाह में
हराभरा सा बगीचा ... न बरसात हुई न बची हरियाली
पहले कोपल सूखी सी लगी फिर टहनियों ने साथ छोड़ा शायद
समय के नमक ने धरती को सोख लिया भीतर तक
खारापन बढ़ गया इसकदर दरारे पड़ गयी चेहरे की उप्ती सतह पर
क्या सचमुच वो दरारे उपर ही हैं..
छलनी तो नहीं ह्रदय ममता का स्नेह तरसता तो नहीं स्नेह को
तुम शब्द बन बिखरने लगे ,,
और ..मरुधर मुझमे संवरने लगे ..
अब बहता है रेत का दरिया मुझमे ,,
हर लहर समन्दर बनने की चाह लिए उफनती है मुझमे
मैं धरती हूँ ... तुमने छीन लिया बाना मेरा ...
उतार लिए हरित वृक्ष देह से मेरी ... जीवन बन लहलहाते थे मन के आंगन में
मेरी मुस्कुराह बसंत की महक छिन गयी होठो से मेरे
मैं जीवन देने को आतुर रही मगर ...
तुम्हे बोझ लगता रहा मेरा साथ ..
तुम उजाड़ते गये उपवन बाग़ बगीचे ,,
मेरे मन को तृप्त करते जंगल काट डाले तुमने
अपने तनुजो को मनुज बनाने की चाहत थी मुझमे ,,स्वार्थी बन गये ,,
जीवन की अति की चाहत में विनाश-अर्थी बन गये
स्वावलम्बन को छोडकर आडम्बर आरक्षित होगये ,,
प्रकृति से दूर जीने की चाहत में ...प्रकृति का अनादर करने लगे,,
स्वछता के मायने एश औ आराम हो गये ,,,
और मैं ... बाहर से नहीं भीतर से टूटती रही ..
अपने तनुजो के किये हर वार से सूखती रही
चेताया अनेक बार..सप्रयास प्रयत्न किये कितने ...
संभल जाओ आज भी ... मेरा नही अपने विनाश की और देखो
न लान्घों ये अंतिम दीवार स्वार्थपरता में स्व की अति की ..
मुझसे माफ़ी की उम्मीद न रखना ,,
माफ़ी तो तब होगी जब मैं धरती बचूंगी ,,
जल रही हूँ मैं
तप रही हूँ मैं
भूखी हूँ प्यास से जूझ रही हूँ मैं ,,
मेरी सांसे अंतिम आशा के स्वप्न से सरोबार है
उन आशाओं को दर्द में नबदलो
इंसानियत शरमा रही है ,,
जीवनडोर के अंतिम छोर को संभालो ..
ये किनारा टूटकर नहीं जुड़ता ,,
यही अंतिम सत्य है ,,, समझो तुम हे मानव
||" ---- विजयलक्ष्मी

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