Thursday 3 December 2015

" जहां फरिश्ते भी रिश्ते से होकर आँखों में तिर जाते है "

" जीवन का प्रवाह 
न सन्यास न उच्छ्लन्खता 
न सियासतदारी है 
न रियासतदारी है 
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर 
न स्वार्थ की कामना
न इश्वर से होने वाला सामना
न इश्वर तुल्य होने की इच्छा
न कृष्ण न शिव होने की उत्कंठा
न पर्वत सी पीर न समन्दर के तीर
न दर्द सुमेरु बनने की
न उत्कंठा आकंठ भरने की
क्या करना महान बनू मैं बहुत
न गणना पुष्पित डालो की
न चिंता सांसारिक भालो की
न उद्वेलित मन विरानो सा
न चाहा बागों सा खिलना
विरानो के काँटों में पुष्प बना
घनी धुप में वृक्ष घना
सहरा में बदली सा होकर बरस बरस बरसा दे मना
जब रात अँधेरी चंदा सा चमकू
चमक चांदनी रौशनी भर दू
मुस्कान बना सूखे होठो की
उलझे लट जख्मी आहटो की
बन नदिया सा बहना सिखला दो
मुझको थोडा पत्थर सा बना दो
न राह अधूरी कुछ जीवन की मारामारी
पर्वत पर बर्फ सा थोडा संघर्ष सा
करता विमर्श सा
नफरत को ताले में बंद रखना
प्रेम की धारा को नदिया सा हौसला देना
वृक्ष की खोखर में पंछी का घोसला बनेगा
तिनका चिड़िया दाना ..
जाल पंख जीवन का खेला
जिसको लेकर भी मन चले अकेला
बन सन्यासी त्याग करू जमघट का
लेकिन इच्छा हो वासी जैसे मरघट का
कभी मिलना हो गर प्रभु से अपने
लालसा मुझसे ज्यादा हो
हर बार साथ का वादा हो
जब बिछुडू नमी आँखों में
इंतजार बातो में
रास्ता कटे रातो में
दिन याद में जिन्दगी के साथ में
मयूर से नाचते हो मन के जंगल में
गुरबत हो या सत्ता न हैवानियत देना
मुझे ईश्वरत्व नहीं इंसानियत देना
जीवन का प्रवाह
न सन्यास न उच्छ्लन्खता
न सियासतदारी है
न रियासतदारी है
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर
क्षितिज के उस और मिलना
जहां फरिश्ते भी रिश्ते से होकर आँखों में तिर जाते है "
--- विजयलक्ष्मी

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