Wednesday 18 February 2015

" जन्म कहीं जीवन कहीं ...कहाँ ठिकाना,, सोचती है "

" जानती हूँ ,मेरी स्तरहीनता ही कचौटती है ,
अल्प बौद्धिकता ही मेरी नीचा दिखाती है 
मालूम है सत्यभाष कठिन है उकेरना 
सत्य पर झूठ की चादर मुझे नौचती है 
मैं स्त्री मजलूम भी नहीं लेकिन ...,फिरभी 
दर-कदम जिन्दगी स्वाभिमान खोजती है
अभिमान के लिए मानिनी नहीं बनी औरत
देवी बनाकर पूजा, गर्भ में क्यूँ खौन्चती है
मेरे हक मेरी झुकी नजर ,,टूटी कमर है
मेरा प्रेम कर्तव्य, बेह्क ममता क्यूँ सोचती हैं
मेरा हक इबादत है ,,चुप्पी पुरुष बपौती पर
म्यान में रह.. औरत ज्यादा कब बोलती है
जननी हूँ मगर फैसला कोई नहीं ले सकती
जन्म कहीं जीवन कहीं ..कहाँ ठिकाना,, सोचती है
"---- विजयलक्ष्मी

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