Saturday 24 January 2015

" बंद दरवाजा भी अक्सर नई राह खोलता है "

रेत की मानिंद 
गिर रहे हैं लम्हे 
जल रही हैं सांसे 
और वक्त ...है कि थम ही नहीं रहा 
चीथड़े चीथड़े हुए धुप के टुकड़े 
समन्दर आँखों में ..
कोई बीज आँख नहीं खोल रहा
नमक लील लेता है ..
जवान वृक्ष की जड़
छाह को छाते चलने लगे हाथ में
और ..
वृक्ष निरीह ..
पंछी सयाने हो गये
घोसले छत की कोटर में बनाने लगे
पेड़ो को छोडकर
विकास के नाम पर कट जायेगा
वो वृक्ष ...
जो खेत की मेड पर खड़ा है
आज भी ..
मेरे दुनिया में आने से पहले
कभी कोई कलियाँ दिखाई दे जाती
शायद
निगोड़ी आंधी ने मार डाला उन्हें
पत्ते गिर गये है ..
कोई कह रहा था बसंत आ गया ..
शायद सुन लिए पत्तियों ने
और झड़ गयी
नई कोपलों के लिए
और ...
एक मनुष्य है
........!!----- विजयलक्ष्मी 

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कभी आवाज मौन है कभी सन्नाटा बोलता है
ए जिंदगी मुस्कुरा वक्त ही मौत का दर खोलता है
क्या मलाल या उज्र हो जिंदगी से भला
बंद दरवाजा भी अक्सर नई राह खोलता है -- विजयलक्ष्मी 


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काश, बस चिंता होती 
तो औरत भी जिंदा होती
काश. आजादी सांसो की होती 
क्यूँ इज्जत बस औरत से शर्मिंदा होती
कौन समाज किसका समाज
यहाँ बस औरत की निंदा होती
दूसरे घर से लाई गृहलक्ष्मी
क्यूं अपने घर में भी नहीं जिंदा होती
--- विजयलक्ष्मी 

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