Wednesday 19 November 2014

" लक्ष्मीबाई (झाँसी की रानी )के जन्मदिवस पर "

लक्ष्मीबाई (झाँसी की रानी )के जन्मदिवस पर ....श्रद्धासुमन अर्पित हैं .

कोटिश: नमन ||



" झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
अन्य नाम मनु, मणिकर्णिका
जन्म 19 नवंबर, 1835 ( वाराणसी, उत्तर प्रदेश )
मृत्यु 17 जून, 1858 ( ग्वालियर, मध्य प्रदेश )
अविभावक ---मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई
पति- --राजा गंगाधर राव निवालकर
संतान--- दामोदर राव(दत्तक )
प्रसिद्धि रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं।
नागरिकता भारतीय.... रानी लक्ष्मीबाई का बचपन में 'मणिकर्णिका' नाम रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। विवाह के बाद इनका नाम 'लक्ष्मीबाई' हुआ
।"



"झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई "से एक मुलाकात ...जैसे वक्त ठहर गया था ..आंखे लबालब और सांसे अपना सुर ताल सब बदल चुकी थी ...उस जमीं को छूना ..मेरे लिए अविश्वसनीय सा सपना कहूं या हकीकत ...दिल जैसे उछलकर बाहर ही निकल आएगा ..आवाज साथ नहीं दे रही थी ..महल की दीवारों को छूने से झनझनाहट सी उठी ..जैसे बिजली गुजरी थी उसी पल ...शब्द कम कहू या जो महसूस किया शब्दों में नहीं लिख सकती ..बस ..एक मुलाकात जिसे भूल पाना ..खुद को भुलाना होगा ...बचपन की कहानियां किस्से इतिहास की तरह पढ़ी बातें ..जैसे सबकुछ पा लिया था ..झलकारीबाई सी सहेली ..मोतीबाई सी तोपची ..काना मुंद्रा सखियाँ ..धोखेबाज सिंधिया परिवार ..तलवार सिखाते नाना साहेब ..महल के उपर से घोड़े पर बैठकर छलांग लगाना ..जैसे गुजरता जा रहा था चलचित्र सा ...दीवार को छूकर दूर हटने का मन नहीं था ..हर घटना जीवन बनती चली गयी ..झांसी मेरा एक सपना ..जैसे सपना सा पूरा हुआ एक ..हाँ कहीं जिन्दा है शायद मुझमे आज भी ..मन द्रवित हो उठा ..उस अहसास को जीने का आंनद ही निराला है .--- विजयलक्ष्मी





" खंजर की चमक बिजली .उठे.खनक तलवार से  
खौफ से जीता था दुश्मन सदा जिसके वार से 
कांपते थे दिल ..डोलती थी सत्ता जिसके नाम से
गुडिया नहीं भायी उसको चूड़िया न सुहाई वक्त को
शब्द जो बोलती थी तलवार से तौलती थी
बंदूक भाला बरछी सखी दोस्त बन चले थे
था घुड़सवारी शौक .. वीरबाना जिसका पर्याय हो चले थे
सन सत्तावन को रास नहीं था ..जीवन उसका छीन लिया
कैसे जीती परतंत्र होकर स्वतंत्र मौत को बीन लिया
रणभेरी बजती भुजा फडकती और सुलगती आग सीने में थी  
लक्ष्मीबाई..गर्वित हम ,तुम जन्मी भारतभूमि में ,
नमन कोटिश: प्रथम वनिता को .|
..जीने की सीख सिखा गयी ,,
जीना मरना रह स्वतंत्र ...पाठ स्वतंत्रता सिखा गयी ..
हो गुजरी वो जिस पथ से पुष्प स्वतन्त्रता के खिला गयी ...
आने वाली पीढ़ी को भी बलिदानी राह दिखा गयी
श्रृंगार चूड़िया कब भायी हाथो में 
बचपन से भाला कृपाण संग तलवार जो आ गयी
करूं नमन कितना भी ,कम हैं ...
स्वतंत्रता की दीवानी खुद रणभेरी बजा गयी
डरी मौत से कभी नहीं वो चिता को भी भा गयी .
रक्त से कैसे लिखते हैं " देशप्रेम गाथा "सारी दुनिया को बता गयी "||



 ---- विजयलक्ष्मी 




"
उठे तूफ़ान दीवानी का तो बवंडर सा गहरता था 
लक्ष्मीबाई का नाम जुबाँ पर जब ठहरता था 
खौफ सा दुश्मन के दिल को दहलाकर ही गुजरता था 
खंजर कृपाण तलवार से वीरांगना का श्रृंगार संवरता था 
घूमती नजर जिस और रण में थी 
लहू में सबके जैसे प्राणों का संत्रास उभरता था 
तुम भूलना चाहो भूल जाओ ..वो मर रही देश पर ....
भला हो ...सोचकर देखना उसे बेटी बनाने लालसा कौन नहीं करता था 
आज स्वार्थ लटक रहा है देशप्रेम भटक रहा है 
देशपर मर मिटे जो ....रणबाँकुरे उन्हें कोई याद भी नहीं कर रहा है " 
.---- विजयलक्ष्मी 



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