Friday 3 October 2014

" शायद इसीलिए .. मिल्कियत लगता रहा तुम्हे "

" अदना सा दिल औरत का ,
सहता ,सहता लेकिन कुछ न कहता
दर्द में भी मुस्कुराकर कह उठता कोई बात नहीं
शायद इसीलिए ..
मिल्कियत लगता रहा तुम्हे
जैसे बिना पासपोर्ट के किसी देश सफर
जैसे बिन तह किये कपड़ो से ठुसी अलमारी
जैसे खाना बनाते वक्त बिखरी हुई रसोई
जैसे मन मर्जी से खानाकर पान थूकना पीक बगीचे के कोने में जाकर
जैसे प्रतिबंधित भाषा से युक्त सम्भाषण करना तुम्हारा
जैसे नशे की गोलिया लत लग गयी हो जिनकी
जैसे ए टी एम कार्ड निकालता पैसे मशीन से
जैसे पुलिस वाला नहीं टोकता जानपहचान का पाकर
जैसे नागरिकता का ग्रीन कार्ड होल्डर
जैसे हक मिल गया हो रसीले प्रतिबंधो को तोड़ने का
जैसे एक एसा मुल्क ..
जखीरों से आजाद है
सुरक्षित है हर नागरिक वहां का
सत्ता को चिंता सत्य की ,,रियासत की सियासत की
जो नहीं झोंकती युद्ध मे अपने वाशिंदों को लड़ने
खुद रहती तैयार तत्पर हर लम्हा
लड़ने को सभी
खुद ने छेड़ी जो लड़ाईयाँ "--- विजयलक्ष्मी

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