Sunday 26 October 2014

" मुर्दा शब्दों को जिन्दा बस्ती नहीं मिला करती "

" कुछ वृक्षों पर कभी ओस नहीं गिरा करती ,
कुछ वृक्षों की डाली कभी नहीं फूला करती ||


कुछ कंटक चुभा करते है कदम कदम 
कुछ जख्मों पर पपड़ी नहीं जमा करती ||


कुछ बिखरी पड़ी टूट शाख से इधर उधर
पत्ती पीली होकर गिरी,, नहीं जुडा करती ||


धारा बह निकली थी पहाड़ो से वक्त और था
बहती धारा ..तालाब पर नहीं रुका करती ||


हूँ अदना सी बूँद, वजूद नहीं कुछ भी मेरा
टूट गिरी इक बार नजर से नहीं उठा करती ||


न महक है न रंग.. बेरंग स्याही कलम की
मुर्दा शब्दों को जिन्दा बस्ती नहीं मिला करती |
| "--------- विजयलक्ष्मी 

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