Friday 24 October 2014

" गजल शब्दों का मकां होता तो शब्दकोश कम कैसे "

" वो कोई और होंगे चेहरे पे गजल कहने वाले ,
उजला मन चांदनी छलकी तब गजल बनती है

दौलत की दुनिया में सुना है बिकती हैं गजले
रंज की महफिल गरीबों की भूख गजल बनती है

लबों की लाली पर गजल को न कहना मुझको
लहू बिखरता सरहद पे हौसले की गजल बनती है

बरसती बरसात पर लिखी गजले गजलकारो ने
सहमी वो लडकी दुनियावी निगाहों से गजल लगती है

गजल शब्दों का मकां होता तो शब्दकोश कम कैसे
भीगते हैं अहसास जब दिल के गजल बनती है
"--- विजयलक्ष्मी 

3 comments: