Sunday 12 October 2014

" मैं इच्छाओ पर मर्यादा का ताला लगाती हूँ .."

" मेरे भीतर भी कोमल सा दिल था ,
जिसे फूलपर ओस भी सिहरा देती थी 
चटकती कलियाँ अंगड़ाई लेने को मजबूर करती थी 
भ्रमर की गुंजार इन्द्रधनुष संवार देती थी 
बच्चे सी अद्भुत मुस्कान थी 
जज्बात बहते थे नदी बनकर मीठे जल जैसे
उड़ान के हौसले थे नीलगगन से भी उपर उठने के सूरज को छूने के
एक आस थी उम्मीद थी मेरे अपने वजूद की
लेकिन उस दिन जब पैदा हुई ,,ओह लडकी ..सुनकर दम ठहर गया था मेरा
कदम बढाया तो कितनी जल्दी है इसे ..सुनकर रुकने लगी
स्कूल गयी तो ..ज्यादा मेलजोल अच्छा नहीं सुनाकर सिमट गयी खुद में
वय हुयी तो नजरे टेढ़ी थी सभी की..मैं उलझ गयी खुद में
पिता ने विवाह की बात चलाई ..खूबसूरत नहीं थी काली किसी को पसंद नहीं आई
दहेज का सामान मेरे गुणों को बढ़ा रहा था
रसातल की नार को शिखर पर बिठा रहा था
दहेज की गाड़ी मुझे आँखों का काजल बना रही थी
नोटों की गड्डी मेरी ख़ूबसूरती को चार चाँद लगा रही थी
क्रमश: मैं भीतर भीतर कठोर होती हुई पत्थर बन गयी
ये पत्थर होना भी रास नहीं आया मेरा
मेरे दिल पर इल्जाम थे सुरत जैसा ही दिल है मेरा और सीरत भी
जैसी काली थी वैसे ही काला जादू भी जानती हूँ
किसी ने कहा तिल की स्याही खुदा की गलती से गिर गयी चेहरे पर
इक मैं अकेली नार ...उसपर खड़े होते हजार सवाल
तिस पर उपहार में उपहास
और मैं मैं धीरे धीरे ..भीतर बाहर पत्थर हो गयी एक दिन
दिल भी धडकना भूलने लगा
और मुझे नवाजा गया पत्थर दिल के नाम से
कोयल की तारीफ़ हुई दिल खोलकर
कौए को पूजा गया पित्र मानकर
कुत्ता वफादार सबसे बड़ा
शेर दिलदार उस से भी बड़ा
सब तकदीर वाले थे जहां में
एक मैं अकेली ..जिसे हर कदम टोका गया
बंधकर जंजीर मर्यादा की मेरे हौसले को रोका गया
मेरे भीतर भी कोमल सा दिल था ,
जिसे फूलपर ओस भी सिहरा देती थी
चटकती कलियाँ अंगड़ाई लेने को मजबूर करती थी
भ्रमर की गुंजार इन्द्रधनुष संवार देती थी
बच्चे सी अद्भुत मुस्कान थी
आज मैं मर्यादित हूँ ..सब खुश हैं मेरी चुप्पी से
मैं इच्छाओ पर मर्यादा का ताला लगाती हूँ
तहजीब को बाँहों में भर लेती हूँ
नमी को पलको पर टोक देती हूँ
कदमों की बढने से रोक लेती हूँ
वाह री दुनिया ...वाह री दुनिया वाले
तेरे करतब सबसे निराले
" --- विजयलक्ष्मी 

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