Wednesday 24 September 2014

" सरहद वालो संभलकर रहना "

"शूल पर कदम तो फूल बनते है ,कलम तलवार बनती है ,

सुबकिया अंगार बनती है,जुबाँ चलती जैसे कटार चलती है..


हम रागिनी देश की गाते है ,सरहद वालो संभलकर रहना 


यहाँ लहू हिन्दुस्तानी है ..गफलत में तो दुनिया चलती है
"
-- विजयलक्ष्मी 

Saturday 20 September 2014

"...शून्य बनकर भी खुश हूँ "

" किसी की हैसियत घटाऊ 
या कम करके आंकू 
किसी को नीचा दिखाऊ 
ये फितरत ही नहीं ,
मैं ,
शून्य बनकर भी खुश हूँ ,,
मुझसे ,
किसी को द्वेष तो नहीं
कभी जोड़ा नहीं तो घटाया भी नहीं 
अक्सर मिलती हूँ ..
खुशियों की गुणक बनकर
सुंदर ..
अपनत्व भरा परिवेश होता भी वही
" --- विजयलक्ष्मी

" छिपाकर रखता है मुझको मुझसे "

" कत्ल भी करता है खुद को कातिल मानता भी नहीं ,
बहता है लहू संग मुझमे औ मुझे पहचानता भी नहीं 

अजब हैरान हूँ उस शनासाई से खुदारा माजरा क्या है 
कहता है जालिम औ गुनहगार मुझे खुद मानता भी नहीं 

कहता है रुको मुझसे ,न हो धडकन ही रुक जाये मेरी 
उफ़ कयामत भी बुलाई खुद, बात मगर मानता भी नहीं

चाँद सा चमकना रास नहीं बाजार लगाकर खरीदता है
छिपाकर रखता है मुझको मुझसे मगर मानता भी नहीं

बताता है जहरीला जहर पसंद क्यूँ ,जुदा भी नहीं करता
है बहता दरिया, मुझे खुद में बसाया मगर मानता ही नहीं
"
-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 17 September 2014

" सिला जख्मों का रुके क्यूँ "

कुछ लम्हों की चुप्पी को हार मत समझना ,
हौसले मेरे,उड़ान थमने नहीं देंगे याद रखना

हूँ अनजान राहों से, मंजिल मिल ही जाएगी
घायल हूँ मगर जिन्दा नहीं मरेंगे याद रखना

माना मौत हमसफर है कत्ल करेगी मुझको
फख्र होगा मरकर भी जिन्दा रहेंगे याद रखना

बहुत देखली दुनिया झूठ-सच के फंदे भी देखे
देखी मक्कारी श्रृंगालो सी कहेंगे याद रखना

मुखौटे संग देखे मुखौटो में छिपे अपने पराये
जब चाह अपनाया, परायापन देखेंगे याद रखना

चला दो खंजर अपना लहू बहता है बहने दो
सिला जख्मों का रुके क्यूँ असर देखेंगे याद रखना
--- विजयलक्ष्मी 

" मुझे रोटी बनना ही भाता है"

" आकर्षण और विकर्षण 
दो दिखे क्या ..मुझे तो नहीं दिखे 
एक ही सिक्के के दो पहलू 
भूखे को रोटी आकर्षित करती है और भरे पेट को विकर्षित 
इसीलिए रसोई में हर दिन नया पकवान बनता है 
लेकिन रोटी से ......कभी मन भरेगा क्या
सोचकर बताना ..
कोई तरकारी हो ..
भूख कम या भारी हो
छोले राजमा या दालमखनी
हलवा पूरी या हो चटनी
आचार से भी मन ऊब सकता है
चाट पकौड़ी को मना किया जा सकता है
लेकिन ..अटकता है रोटी का स्वाद ही
याद रोटी ही आती है सबकुछ मिल जाने के बाद भी
रूप तो मृगतृष्णा ठहरा
सौन्दर्य चेहरों में हुआ करता तो लैला को कोई न जानता
जैसे धरती पर सहरा
कितनी भी बुझाओ प्यास बुझती कब है भला
और मुझे रोटी बनना ही भाता है
" -- विजयलक्ष्मी

"...मगर फिर भी ||"

यूँ ही कुछ सुकूं तो है मगर फिर भी ,
तस्वीर पर नजर तो है मगर फिर भी ||

चांदनी से लग रहा है चाँद था यहींकहीं
दीखता नूर है नजर में मगर फिर भी ||

कुछ कहना चाहते हो मुझसे , कह दो
मानना चाहते हैं तुम्हारी मगर फिर भी ||

कैसे समेटूं मैं शब्दों का बंधन भेज दो
आवारगी छूती नहीं यूँतो मगर फिर भी ||

टूट न जाये बाँध जो लपेटे है लहरों को
यूँ तो किनारा मिल गया मगर फिर भी ||

तैरने की कोशिश बकाया डूबने का डर
बिन पतवार है कश्ती ....मगर फिर भी ||
-------- विजयलक्ष्मी

Tuesday 16 September 2014

कश्मीर का नया दर्द ..या काफिरी ?


" क्या ईस्लाम मे केवल पैसा आतंकवाद पर और
मदरसो पर खर्च
करना लिखा है ।।

ईस्लाम मे क्या हिन्दूओ और
सिक्खों की दी हुई खैरात खाना लिखा है "
----

" बाढ़ ,खुदाई कहर का इक मुद्दा ठहरा ,
शब्द खिलाफत भी काम काफ़िरी ठहरा .
अफ़सोस ,दर्द ..मदद इन्सान करते हैं
बोलना भी गुनाह मुद्दा काफिरी ठहरा .
संगीनों-दहशत की बिना पर जिन्दा धर्म ,
ख़ामोशी सबसे अच्छा हथियार ठहरा
मुर्दों की बस्ती में कितना भी चीखो
हर कब्र पर लगा है मुसलसल पहरा " ---- विजयलक्ष्मी

Wednesday 10 September 2014

" इक गुनाह तो मेरा था ,,"

" इक गुनाह तो मेरा था ,,
उससे बड़ा कोई गुनाह क्या 
सिर्फ यही "एक लडकी थी "
मेरे मन में उगे कुछ सपने थे 
लगता था सब यहाँ मेरे अपने थे 
मुझको अकेली डगर पर देखकर ललचाता हर मुसाफिर 
कभी तन्जकशी कभी राह डसी 
कभी दूरतक मापना डगर ,,
न समझा तुमने कितना मुश्किल सफर 
तुम पिता हुए जब मेरे सपने जरूरी लगे थे कब 
तुम भाई थे खुलकर हंसना तुम्हे रास आया कब
तुम दुनिया बने ..हम आंख में चुभने लगे
जब जन्म लिया वक्त ने डसा
फिर हर कदम सामाजिकता में फसा
एक बात सच कहना बिलकुल सच ..
सब औरत को निकृष्ट क्यूँ समझते है
बिना विरोध चलती है वो
भीतर भीतर कितना जलती है वो
मारकर सपने सभी के सपने पूरे करती है वो
फिर भी हर बार कभी दहेज तो कभी तेजाब से भी जलती है वो
हे पुरुष ..जब तुम जले शोर हुआ
जब हम जले तू विभोर हुआ
सोचना जीवन मेरा था लेकिन किसका जोर हुआ
कभी आचार में कभी व्यवहार में फसी है वो
हर बार सिर्फ नींव ही बनी है वो "
-- विजयलक्ष्मी 

Tuesday 9 September 2014

" वो ...अढ़ाई आखर "

वो अढाई आखर ..जीवन 
वो अढाई आखर ...मौत 
वो अढ़ाई आखर ...तुम 
और मैं ...
लिए वो अढ़ाई आखर 
जब पहुंचे कहीं 
गीत गूंज उठा वहीँ 
नृत्यांगना बनी आत्मा 
घुंघरू में स्वर गुंथे 
वो अढ़ाई आखर ..बन गया "हम "
सरगम बजती है
रागनी सजती है
लज्जा संवरती है
चुप्पी ..निखरती है
उतरा अंगना में वो ...अढ़ाई आखर
लगा सपना सा वो ...अढ़ाई आखर
रचने लगा वो ......अढ़ाई आखर
रंगने लगा वो .. ...अढ़ाई आखर
बीज बन गया वो ..अढ़ाई आखर
सींच गया वो ........अढ़ाई आखर
वृक्ष बना जब वो ....अढ़ाई आखर
पुष्पित हो महक गया वो ......अढ़ाई आखर
तुमने कहा नहीं मैने सुना नहीं वो ..अढ़ाई आखर
फिर भी गुणा गया वो .....अढ़ाई आखर
पीर पिघला गया वो .....अढ़ाई आखर ---------- विजयलक्ष्मी

Monday 8 September 2014

" कोई बतायेगा हिंदुस्तान का कश्मीर बहा या....?"



काश्मीर बह रहा है ,
कोई बतायेगा हिंदुस्तान का कश्मीर बहा 
या पकिस्तान का 
या अलगाववादियों का बह गया सारा 
या अभी कश्मीरियत बकाया है लहू में जिनके उनके घर बहे 
या अभी कोई बकाया है बहने को निशाँ किसी और कौम का 
हिन्दू बहेंगे कैसे पहले ही भगा दिए थे मारकर 
मुस्लिम तो अल्लाह के बंदे हैं ..उनपर अल्लाह का कहर होता नहीं है 
इंसानियत तो बहुत पहले जज्ब हो चुकी इंसानी शक्ल के भेडियो में 
हाँ ..ये सच है ..अधुरा नहीं पूरा सच .."काश्मीर बह रहा है "
रिस रहा है दर्द जिसमे ..वो किसका मकान है
गिर रही है जिसकी छत वो किसकी दूकान है
कौन है जो बेवा हो रही है
कौन है जो जिन्दगी को रो रही है
वो कहाँ गये जो तोड़ते फिर रहे थे देश को
उन्हें मौत ने निगला या नहीं टुकड़े टुकड़े कर रहे थे ख्वाब को
वो जिन्दा है या दफन हो गये कब्र में जो बेच रहे थे देश को
कोई आता क्यूँ नहीं अता करने फर्ज अपने
कोई बोलता क्यूँ जिनके बह रहे है खुद के अपने
ये दर्द भारत का भारत रिस रहा है
ये ख्वाब भारत की आँख का है जो टंगा है मुहाने पर आँख के
कहदो दुश्मनों से ..नजर भर देखना भी छोड़ दे
झूठे सच्चे ख्वाब अपनी आँखों के तोड़ दे
काश्मीर हमारा है ..कोई नहीं रिसा ..हमारे सिवा
पाकिस्तानी झंडा फहराने वाले फना हो गये दर्द के खर्च को देखकर
बाकि सब भी गारद हो गये दौलत की जरूरत देखकर
हमे आता है अपने की जिन्दा रखना
भूखे भाई को रोटी खिलाकर खुद खाना
कौन बतायेगा किसका काश्मीर बहा
सुनो टेलीविजन पर गला फाड़ फाड़ कर पुकार रहा है भारत का कश्मीर बाढ़ से त्रस्त है
ये दर्द हमारा है हमारे घर का है
काश्मीर बह रहा है ,
कोई बतायेगा हिंदुस्तान का कश्मीर बहा
या पकिस्तान का
या अलगाववादियों का बह गया सारा ---- विजयलक्ष्मी

Tuesday 2 September 2014

" हिचक कहू या हिचकी दोनों ही साथ थी "

अँधेरी राह पर दीप रखने की बात थी 
देखो जल रही हूँ मैं, बाकी है रात भी 

तहरीर ए ख्वाब संग सरहद पर बैठकर 
तकरीर शिलालेख पर नहीं है आज भी

जख्म न गिन मेरे ,तू वार करता चल 
उठा है दर्द भी संग रिसता अहसास भी

भूख जिदा कहूं या मुर्दा बैठकर मजार में 
मैं मुअत्तर, दर्द में तिरे जलते चराग भी

चांदनी बिखरी ,दीदार ए चाँद निगाह को
हिचक कहू या हिचकी दोनों ही साथ थी --- विजयलक्ष्मी 

Monday 1 September 2014

" सच का दुश्मन झूठ का पुलिंदा है आदमी "

माचिस न जला बेकार हो चुकी ,
आजकल आदमी से जलता है आदमी ||

शर्मसार है नाग भी देखकर इंसान
अब तो आदमी को डसता है आदमी ||

तू मन मैला कर न कर फर्क नहीं
कालिख भीतर बसाए घूमता है आदमी || 

जहर देने की जरूरत खत्म हुई 
भीतर जहर उठाये फिरता है आदमी ||

इंसानियत का जनाजा खूब उठा यारा
सच का दुश्मन झूठ का पुलिंदा है आदमी || ------ विजयलक्ष्मी