Friday 29 August 2014

" खारापन बसने लगा मिठास खो रही हूँ "

" दंश सालते थे बहुत ..अब चुभन लहू में उतर गयी ,
अब मुस्कुराती है उदासी चौखट के भीतर तन्हा  देखकर
तुम नहीं आओगे ... यहाँ जंजीर सिद्धांत की
टीसती बहुत है नम आँखों में बैठकर
बह उठती हूँ समन्दर बनकर तुम्हारी तरह
कश्ती बन तैरी थी भंवर में उलझी
सुलझ नहीं पाई उलझी हुई मैं ..
बरगद की डाली पर लटकी हूँ आज भी बेताल की तरह
बदरा दीखते हैं गगन पर उड़ते हुए भाते हैं बहुत
छूकर गुजरता है वो हर अहसास जिसे तुम पड़ोसी के दर पे रख आये थे
मेरा सूखा आगन चिढाता है जब ..मैं नदी से समन्दर हो जाती हूँ
मेरी आँखों का नमक घुलता है मुझमे ..,अब रिसता नहीं
तुम नमक के सौदगर बन जाओ ..
कभी तो आओगे ...कोई बहाना भी तो हो
गुलाब न सही नमक भी चलेगा
सौदे की बात है ..लेकिन -
तुम ठहरे व्यापारी ...नफा नुकसान देख लेना अपना
हमारा क्या है ..धीरे धीरे गल जायेंगे नमक में दबकर
सुनो ........लगता है ,
"समन्दर में डूबी हूँ ..समन्दर हो रही हूँ ,
खारापन बसने लगा मिठास खो रही हूँ "" -- विजयलक्ष्मी

1 comment:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 31/08/2014 को "कौवे की मौत पर"चर्चा मंच:1722 पर.

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