Sunday 6 April 2014

औरत की रूह बसती है सिंदूर की बस्ती में



सिंदूर ,
क्या सच में ..मात्र रंग ही हैं ,
क्या ये मन का रंग नहीं होता ..क्या उसका लहू से नाता नहीं होता ?
रंग का नाम देकर हर रिश्ता चीन के सामन सा बना दिया तुमने 
तुम्हारे लहू का सिंदूर जिस पर वारा तुमने ,
तब तो तुम उसी के हुए 
हम ही गलत थे न ..
ओह ..सिंदूर मांग में भरना था किसी और की तुमको 
क्या हमारी मार्फत ..तो भेज देते हैं उसे ही ..
सजाकर डोली में बिठा लाते हैं उसे ही 
उलाहना अब नहीं देंगे ..न तुम्हारी शहादत जाया ही होने देंगे
लगाओ तुम तिलक माथे करों श्रृंगार दुल्हे सा ..
चले जाओ ..जहां जिन्दगी बैठी है इंतजार में तुम्हारे ..सेज फूलों की बिछाए
तुम्हारी बहन वो थी नहीं मेरी कभी बनी नहीं ..
घर जाकर भी देखा उसके ...बेइज्जत करके निकाला था
मगर फिर भी चुप ही थे ....
हम ही हर बार गलत थे ..तुम उसी तरफ खड़े मिले सदा
गलत हुआ ...हमे समझना था
हम एकेले हुए नितांत ..मौत आन बैठी राह्पर
बुरा हुआ ..मौत भी डरकर चेहरा दिखाकर चली गयी मुझे ..
नहीं मालूम था रंज होगा तुमको
और हम तुम्हारी शहादत का हथियार दिखेंगे तुमको
जहां खुशियाँ मिले चले जाओ ..
हमे रंग नहीं लगा ..उफ्फ् !गुनाह हुआ
हमने सोचा था वफा का रेशमी धागा जिसको
वही नागपाश बन गया गर ..तो तोडना अच्छा
जो बन जाये सांस पर भारी उन रिश्तों का छोड़ना अच्छा
इबादत खुदा की करती है दुनिया ..गलत किया जो तुमने ..
अभी तक जिन्दा से थे मगर इल्जाम लगाकर मार दिया तुमने
हर मुमकिन कोशिश मगर नागवार गुजरी सदा ..
वाह री किस्मत ..बहुत खूबसूरत धोखा हुआ ..
शहादत नहीं चाहिए किसी भी कीमत पर ..
मुझे नफरत में धकेला जिसने ..बताओ कौन है वो
हर कहानी चलचित्र सी गुजर गयी पल में आँखों से
तुम करो तो चुहल हम करे तो घर से निकला ..
शुक्रिया ...साहिब अच्छा हुआ ..
आज ये फलसफा जो तुमने सुना डाला ..
हम माफ़ी के काबिल भी नहीं रहे
तोडकर सपने किसी की आँख के
इतनी बड़ी गलतफहमी कैसे हो गयी हमको .
मगर ये सच है ...हम संकुचित मन के प्राणी ..
सुहाग नहीं बांटते किसी भी कीमत पर ,
मौत मंजूर है ..चाहे कितने भी मजबूर हो
तुम्हरे फैसले का इंतजार कर लेंगे उम्रभर
मगर याद रखना सिंदूर रंग नहीं होता ..
मान होता है मानिनी का
स्वाभिमान होता है भामिनी का
मर्यादा होती है
संस्कृति है ये हमारी ,
जिन्दगी होती है..
साँस की आस होती है
अहसास बसते हैं
पिया की आस सजती है
तभी कोई औरत
औरत बाजारू नहीं ....इज्जत होती है घर की
कदम को रोकती है देहरी लांघने से
गलती पर टोकती है
करती है जौहर इसी के नाम पर
औरत की रूह बसती है सिंदूर की बस्ती में
इसलिए
औरत ..बाजार मे पैसो में जो बिकती है सिंदूर को ही तरसती हैं
ज्यादा नहीं... सिर्फ... एक चुटकी भर !!
..
..
गैरतमन्द हो अगर थोड़े से भी
फिर मत कहना
आज के बाद
किसी औरत को ये शब्द "सिंदूर ..बस रंग है " .. !!-- विजयलक्ष्मी

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