Tuesday 14 January 2014

रूह ए वतन उड़ती क्यूँ ख़ाक उड़ाते फिरते हो ,

रूह ए वतन उड़ती क्यूँ ख़ाक उड़ाते फिरते हो ,
रमता भी जमता भी नहीं जुगतजोगना भाती है जब

वो कौन चमन मलय पवन प्रिय न लगे जिसे
ओस भरी पूस की राते,बसंत बसंती बुलाती है जब 

मझधार खड़े पतवार नहीं लहरों में लहरे डूब रही 
नाव बनाये कौन खिवैया तटबंध तक ले जाती है अब 

आफताब जलता हैं क्यूँ धरती मुस्कुराती है जब ,
समन्दर में छिप जाता है रात अँधेरी आती है जब .

यूँही हर मोड़ पर मुड़ना मुनासिब नहीं सफर में 
रुकता भी वहीँ है मुसाफिर मंजिल नजर आती है जब 


बही एक लहर उठ तीरे तीरे फिर तिरे तुम ठहर ठहर
डूब मरे पलकों के भीतर लहर समन्दर बहाती है जब

तितली की बात करना मत भौरों का गुंजन खूब सुना
खिलती कलिया शाख-शाख काँटों संग मुस्काती है अब .- विजयलक्ष्मी

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