Monday 2 December 2013

तब एक गजल संवरती है

सियासत की चाल जब रियासत में बंटती है ,

कोई राह जब दिल ए रहगुजर से गुजरती है ,


खुशबू सहरा की जब कायनात से गुजरती है ,


रेतीली आंधियां रहगुजर की समन्दर बनती है ,


हस्ती भी खुदी में समाकर जब नजर डूबती है ,


खलिश छूकर तपिश जब बर्फ सी पिघलती है ,


सामां ए वफा बिखरकर राह से जब गुजरती है ,


वो जिंदगी जब जज्ब होकर खुद में संवरती है ,


शब्दों की चुभन भीतर ,अहसास में उतरती है ,


चमक जुगनू की भी जब सूरज सी निखरती है ,


परवाना जले न जले चाहे मगर शमा जलती है ,


भीतर ख्यालों के हूक सी कोई दिल में पलती है ,


इज्जत के पर्दे से कोई जब आरजू सी उतरती है,


तवायफ भी जब उस रंग से खरी हों निखरती है , 


दर पे दर्द के पहरे और आवाज सर्द बिखरती है ...


कहते सुना हमने भी, तब एक गजल संवरती है .-- विजयलक्ष्मी

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