Monday 23 December 2013

चंदा से निकली चांदनी तो हम नहीं ..

कोई अपना बैठा है ,
जिन्दगी के लुत्फ़ में खुद को लुटा बैठा है 
सर्द मौसम में कोहरे का थोडा मारा है 
दूर है तो क्या .. है तो अपना ही और बहुत प्यारा है
साँस में लिए आस हर बात में जज्ब किये जज्बात 
जैसे आँखों पर सजता सपना है ,
ह्रदय में उगते उदगार लिए अधिकार ...हिस्सा ही मेरा अपना है 
झूठ नहीं सच ही होगा 
करतब कोई समय का भी होगा 

जो बैठा है दीपक जलाये देहलीज पर इंतजार का
और इन्तजार करता है नजर टिकाये एतबार का
कैसा सुहाना सा पल रहा होगा वो
सोचकर नजदीकियाँ अपनों से मुस्कुरा रहा होगा वो

और सूरज भी देता होगा नर्म सा अहसास
अकेलेपन के बाद मिलना अपनों से खूबसूरत सुखद अहसास
कुहुकता है पंछी मन का और नमी सरहद पर
जीवन देता सुकून दूर नहीं लगते तुम हो यही कही पर

कहीं मुझमे मेरी पहचान तो तुम नहीं
सूरज से खिलता चंदा से निकली चांदनी तो हम नहीं .- विजयलक्ष्मी

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