Friday 11 October 2013

ये जो रौशनी है बिखरती है

ये जो रौशनी है बिखरती है चांदनी सी खिलकर 
अंधेरों से कहों सो जाये रात की गोद में जाकर 
सहर होगी सूरज निकलेगा ,उजाला घर से बाहर 
छिपत फिरते है मुकद्दस से सवाल पर यक्ष बने प्रश्न 
और तारे भी अंधेरों में होकर रोशन मना लेते हैं जश्न 
बिखर कर चांदनी निखरती है दर्द में भी हरूफ हरूफ 
कलम बेध जाती है जब शब्दों को उधेड़ उधेड़ कर 
स्वेटर का बुनना मजाक समझा है कुछ लोगो ने 
एक धागे से स्नेह को लपेटते जाना बिना तोड़े ही
कभी खुद धागे सा बनकर मिल और देख मेरा हुनर
टूटकर गिर जाते है वही जो झुकना नहीं जानते
ईमान की बात है वरना ..भाषा लठ्ठमार भी हैं जानते
स्वाभिमान भरा है अभिमान से रहते है बहुत दूर
किसी भी चुप्पी को हमारी कमजोरी न समझना हुजुर .- विजयलक्ष्मी 

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