Thursday 10 October 2013

मेरे तकिये की नमी से क्या पूछोगे तुम


मेरे तकिये की नमी से क्या पूछोगे तुम 
साँझ सहर फैली धुंध का पता 
या.. मुझसे होकर गुजरती हुयी यादों के रेशमी अहसास को 
जिनके साथ भर से छलक उठती है जैसे मौसम ही बरसात हो 
क्या क्या सुनोगे मुझसे ...गुजरे सुनहरे दिन की मरी मरी सी उसी धूप के लिए तो सूखकर महकती मिलेगी उसी तकिये के एक छोर पर सजी 
या ..उस दिन की वो निराशा ..जब बेचीं थी गाय कसाई को पड़ोसी ने चंद सिक्को की खातिर ...मैं कुछ न कर सकी बेबस सी देखती  रही
या ..वो खेत जो गीले तो थे मगर खारे पानी से और फसल चौपट थी जिनकी
या .. वो सपने उस लड़की की आँख के जिसे छोड़ना पड़ा स्कूल ...कुछ लफंगे हुए जिस्मों के कारण ...घर में रहने को बाध्य
या ..उस माँ के आंसू जो रो रही थी उजडती कोख के कारण वजह बेटी का होना
या ..भूख से मरते किसान के बच्चे की जिन्दगी का ,.. जो अन्नदाता है हमारा
या ..सरकारी भाषण से जिसमे रोटी का वादा तो है रोटी नहीं है मगर
या ..सुरक्षा में रासुका तो है मगर सुरक्षित कोई नहीं है आजकल
या .. बेटियों के उन आंसूओ का हिसाब पूछोगे ...जिसे दहेज की कमी के चलते जला रहे है बरसों से ...जिन्दा ही
या ..देह को ताकती उन निगाहों का हिसाब देखोगे जो शोषण कर रही है मन का भी
या.. उस कानून की करतूत सुनोगे जो बंद है चंद पैसे वालो की मुट्ठी में
या.. बिजली पानी के साथ मेरे उस घर के टैक्स का वो बिल जिसे चिलचिलाती धूप में तपकर ...आग उगलती सडको से गुजर कर शीत लहर के मौसम तक ठंड से सिकुड़ते हुए बनवाया था खून पसीने की कमाई लगाकर ....
या.. राशन वाले लाला का वो बिल ...जो किसान के उस बेटे के हाथ में थमा देता है ..जिसने उगाई थी.. फसल अपने बच्चो की खातिर और ब्याज में आढतिया खा गया था सारी
या ..फूटपाथ पे खुले मौसम के तले बैठे उस इंसानी जिस्म जिसे लकड़ी तो हासिल लेकिन पतीला खाली है उसका
बता सकोगे मुझे तुम ...मेरे तकिये नमी से क्या पूछोगे ..या वो अधूरे से ख्वाब ..जो देखे थे कभी हमने एक साथ .----- विजयलक्ष्मी


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