Thursday 1 August 2013

धूल भरे गलियारे है जिनपर नीम की छाँव है



हमे गलियाँ भांति है गाँव की ,

धूल भरे गलियारे है जिनपर नीम की छाँव है 
प्रीतप्रेम के लगते झूले डाली डाली बरगद की 
बाग बगीचे हरियाले खेत आड़ीतिरछी मेंढ़
और दुआएं मिलती सबको दामन दामन उड़ेल 
एक कलंदर बहुत देखते करता अजब से खेल 
एक सफर सुंदर लगता था जिसपर चलती रेल 
कोई अकेला लगता न था कितना सुंदर मेल 
एक शहर अनजाना सा था जहां जीवन था एक खेल 
अजब सा खेला बंगले के गमले पर गुल खिलते हैं कैसे 
और भला तितलियों को सुगंध उनकी जंगल से खींच लाती है कैसे
सरकारी खातों में मारामारी है शहर को ये कौन सी लगी बीमारी है
सूरज तो सबके साथ एकसा उगता था
फिर लालटेन ही करती है चौखट की रखवाली क्यूँ
यूंतो कुमुदनी खिलती है रात अंधियारे में
और महक उठती है रात की रानी कर चांदनी से मिलन
क्यूँ दहक महकता है सूरज ....धरती एक एकेली माना पर चन्दा के तारे थे सारे
सूरज रहता दूर गगन में धरती बैठी नयन उघारे
फिर बहकर नयनों से धारा नदिया उसको दिया उचारा
और इन्तजार के पसीने गगन से नाम ओस शबनमी
पर गुल खिलते हैं जब सूरज का दीदार मिले .
फिर भी कोई नहीं कहता ये धरती को उसका अधिकार मिले .
.- विजयलक्ष्मी

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