Thursday 22 August 2013

प्रेम करना और और कहना दो अलग से फलसफे हैं

चलो अब टूट जाते हैं नई कोपल उगेंगी ,
हम ठूंठ से खड़े छाया भी देते नहीं ,
फल कहाँ किसी ने पाए थे कब 
मार लो पत्थर लो और नीचे आ गये ..
लेकिन उड़ान मन की रोक लूं कैसे 
छोडकर मन्दिर चलो मस्जिद में दीपक जलाते हैं 
माना रौशनी की दरकार सबको है मगर क्या अंधरे भी अपने ही घर की खातिर भाते हैं 
जलाओ चराग उन मुंडेरों जरा ...जहां सूरज भी नहीं पहुंचा कभी 
दिखाओ रोशन किरण उन्हें जिन्हें रौशनी क्या है पता ही नहीं अभी
जहां दीप जलते है हजारों शाम से ...हासिल क्या करोगे तुम उस आराम से
बस तसल्लीबख्श कुछ मिलेंगे लम्हे चैन के ..बेखलल सी जिन्दगी ..
खुद को कह सकोगे हाँ ,जल चुका हूँ अपने हिस्से का ?
मगर झांको आत्मा में और झकझोर लो खुद को
सत्य का जीवन छोटा सही ,
मगर दिखावा तो नहीं
सत्य का परचम लहराएगा देर से मगर झूठा नहीं
प्रेम करना और और कहना दो अलग से फलसफे हैं
कितने है जो कहकर प्रेम की ड्योडी पर हकीकत में लुटे हैं .- विजयलक्ष्मी

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