Wednesday 17 July 2013

शिनाख्त कर सको गर तो करो खुद में गहर गहर

करती है सफर देह ये रूह चल देती है लहर लहर ,
अब खुद से दूर हुए, आवाज लगाते है ठहर ठहर 
वफा नहीं मालूम, है मुकम्मल यूँभी कहर कहर
वक्त ए लम्हात इनायत तेरी शाम औ सहर सहर 
दरकार ए वक्त रूह भी रूह से रूबरू थी बहर बहर
शिनाख्त कर सको गर तो करो खुद में गहर गहर
कब्र को खोदते हो वक्तबेवक्त, घड़ी घड़ी प्रहर प्रहर 
खटखटाती सांकल याद की जब वक्त है जहर जहर 
तिर भी जाने दो कश्ती जीवन नदी में लहर लहर 
महकने दो खुशबू ए कस्तूरी मुसलसल फैहर फैहर
.- विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment