Tuesday 2 July 2013

रूह को रूह का साथ मिल चुका

स्वीकार्य है हर ढंग तेरा रूपरंग ,
चलते रहे है हम तो साथसंग 
लगता था नहीं भायेगा हमारा रंगढंग 
ये धूपछांव ये गमले के रंग 
वो गाँव प्यारा खेतों का किनारा 
महकता सा आंगन चहकता सा सपना 
सुलगता सा सावन अखरता सा मौसम 
वो बहती सी नदिया ..उछलती सी धारा
वो रूबाइयों का मौसम..बसंत प्यारा प्यारा 
सहरा की रेत हुए हरे से बंजर थे खेत 
दीप सा जलकर चमकना सूरज सा
पत्थर का टूटकर ढलना मूरत सा
हर जुदा जग से हर ढंग जुदा सबसे
लगा बहुत ही मजबूत से है इरादे .
लड़ना झगड़ना ..तन्हा सी यादें कितने सारे वादे
सीधा भी बहुत टेढ़ा भी बहुत
तन्हा सा बसेरा वो यादों का डेरा
रूह को रूह का साथ मिल चुका
हम जुदा कब हुए ..मालूम नहीं हुआ
जिन्दा थे या मुर्दा ...हमे लगा हम हमेशा साथ थे ..
देह के रिश्ते जहां के साथ रहने दे ..
बस रूह को रूह के साथ चलने दे
.- विजयलक्ष्मी

No comments:

Post a Comment