Friday 1 March 2013

जिन्दा हों बहता रहे सांसों में असर,

चश्म ए साकी से पी, लब ए सागर की ख्वाहिश न रहे ,
बेखुदी खुद मुझसे हर वक्त पनाह मांगे ,जरूरी क्या है .

दर्द ए बिस्तर पे नींद की परवाह करे भी क्यूँ कोई ,
अहसास ए तमन्ना में एक ही बसेरा हों, जरूरी क्या है .

यूँ तो मेले लगते चाहतों के जमाने में हर मोड पर ,
उस भीड़ में कोई खुदा सा चाहने वाला हों, जरूरी क्या है .

वो सबकी की नजर में खुदा भी हों जाये तो कोई बात नहीं ,
बेखुदी उसकी बस अपनी ही नजर हों ,जरूरी क्या है .

सोच ,न जलवो में बसर ,न हों गम ए शब की सहर ,
जिन्दा हों बहता रहे सांसों में असर, अब जरूरी क्या है .
..विजयलक्ष्मी 

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