Tuesday 6 November 2012

खुशियों की सौगात हमे देनी नहीं आई ...

बंद दरों में बैठा ,मुफलिसों का देवता जाना था ..
रियासत ए मुहब्बत का शहंशाह बन इफ्रायत में खैरात सी बांटता है .-

चोट लगती ही शब्दों की है मन पर ,
पत्थरों के सिले तो होकर गुजर जाते है तन पर .- विजयलक्ष्मी

मेरा बयाँ मेरी जुबा से हों तो बसर अच्छा कहूँ ,
मेरा बयाँ तेरी जुबा से हों तो बसर अच्छा कहूँ बता ?.--विजयलक्ष्मी

आँसू तो है मगर ... गम के नहीं हैं अब ,,
तसल्ली बख्श है, हम मरके भी जिन्दा है जेहन में .-- विजयलक्ष्मी

ख्वाब को ख्वाब में बुनकर एक ख्वाब सजा बैठे ,
यही नादानी थी मेरी, ख्वाब को क्यूँ एक ख्वाब बना बठे.- विजयलक्ष्मी

राजनैतिक हलकों में जिक्र ए सरूर है ...बदलने का चलन 
बिना दल बदले ईमान ,रिश्ते ,धंधे ,डंडे और झंडे सब बदल गया .-विजयलक्ष्मी

खुशियों की सौगात हमे देनी ही नहीं आई ,
दर्द औ गम का सिला देना मुनासिब नहीं किसी को .- विजयलक्ष्मी

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