Tuesday 2 October 2012

शाहदत लिख दे साथ में कोरो पर अपनी ....























"पलकों के सपने काश झूठे से होते तो अच्छा था ,
हम उन सपनों से अछूते से होते तो अच्छा था ,
फ़िक्र जाने क्यूँ रहती है आज भी उनकी खुद में ,
वो जीते मुझसे जुदा ही तो शायद कुछ अच्छा था ,
बह गयी मैं भी पाटों के बीच किश्ती सा वजूद ,
मेरे नयनों में बसता है जाने क्यूँ अब उसका रूप ,
लगता है हाथ बढे तो छू लुंगी आसमां को भी ,
मंजर से कैसे करूं जुदा अब नम हुई आँखों को,
हाँ कहने में घबराता है न कहने में शोर मचाता है, 

हौले हौले मन मेरा कैसे सपनों में खो जाता है ,
सूरज का फेरा कर लेता है डेरे में संग जग लेता है,
खुद को रंग में रंग लेता है ,क्यूँ तन्हा सा रहता है,
मधुर मधुर सा ख्वाब सपनीला मदिर मदिर सा रंग ,
जाने कैसे कैसे रंग देखेगा दिखलाएगा कैसे ढंग ,
झूमती धरा तो हया लरजती है आँखों से क्यूँ ,
किस रूप को देखूं बतला महसूस करूं क्यूँ ,
शबनम पलकों पर लबों पर तबस्सुम पसरती है ,
ये दोनों नैना अब पलकों में दुनिया पसरती है .
वसीयत में यादों के लम्हे होंगे और बीती सी बाते ,
अलसाये से दिन और जागती सी होगी कुछ रातें ,
मेरे शब्दों में मैं खुद को काश पा जाती गर ...
पा जाती ये जिंदगी भी यूँ ही साथ में बसर ,
हम फिर भी वहीं खड़े पते है उसी राह पर ...
जिस राह छुटी थी साथ से जिस लम्हा अपनी डगर..
अब रुसवाई है पलकों में शबनम सी उतरती है सहर में ,
शहादत लिख दे साथ में कोरो पर अपनी...और ..
सिहर उठती उस बूँद में तो कांपती सी रही है मर ."-- विजयलक्ष्मी

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