Tuesday 25 September 2012

बस एक गजल बनती है .

सियासत की चाल जब रियासत में बंटती है ,
कोई राह जब दिल ए रहगुजर से गुजरती है ,
खुशबू सहरा की जब कायनात से गुजरती है ,
रेतीली आंधियां रहगुजर की समन्दर बनती है ,
हस्ती कोई खुदी में समाकर जब नजर डूबती है ,
खलिश तपिश को छूकर जब बर्फ सी पिघलती है ,
सामां ए वफा बिखर कर राह से जब गुजरती है ,
वो जिंदगी जब जज्ब हों कर खुद में संवरती है ,
शब्दों की चुभन भीतर अहसास में उतरती है ,
चमक जुगनू की जब सूरज सी निखरती है ,

परवाना जले न जले चाहे मगर शमा जलती है ,
भीतर ख्यालों के हुक सी कोई दिल में पलती है ,
इज्जत के पर्दे से कोई आरजू सी उतरती है,
तवायफ भी जब उस रंग से खरी हों निखरती है ,
दर पे दर्द के पहरे और एक आवाज सर्द बिखरती है ...
कहते है..सुना हमने भी ,बस एक गजल संवरती है .-- विजयलक्ष्मी

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