Monday 10 September 2012

दुनिया का क्या हों गर ..

न पूछा कर हर वक्त क्या चलता है इस दिमाग में मेरे ,
बहुत शैतानी ख्याल है ,कि दुनिया का क्या हों गर सूरज ठहर जाये .

समन्दर भी किनारों को तोड़ जमीं पे आजाये सुनामी सा ,
क्या मंजर होगा खंजर की जगह हाथों में गुलाब आ कर ठहर जाये .

कलम लिखने लगे तराने गर भूकम्पों की जगह सोच ,
कडवी सी जबां में गर महकते पान औ मिश्री की मिठास ठहर जाये .

मेरी लकीरों में क्या होगा नहीं मालूम न सोचा है कभी ,

मेरे ख्यालों पे लगा सिद्धांतों का ताला छोड़ गावं गर घूमने शहर जाये .

मीठी सी महक ख्यालों की सौंधी सी खुशबू अहसासों की ,
बाँट दूँ कुछ ख्याल शायराना से मुस्कुराकर,जो पलकों पे पसर जाये .- विजयलक्ष्मी

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