Tuesday 19 June 2012

मार दिया खुद को घुसकर भीतर ,

मार दिया खुद को घुसकर भीतर , 
खुद के ही समझ ले अब तेरे हथियार बे नजीर  हुए जाते हैं
सारी बंदिशें ही खत्म हुई फना होने से मेरे ..
बंद दरवाजों के  सांकल ताले सब अब तो बेकार हुए जाते हैं .
जेहन से निकाल मुझमें क्या रखा है
नींद हैं क्या चैन के लिए भी अब ,हम  इन्तेजार हुए जाते है ..
पटक लिया खुद को ही पत्थर पर
अब बाकी कहाँ हूँ ,पल पल अब बाजारी इश्तेहार हुए जाते हैं .
मौत को कर दी सम्वेदनाएँ दान 

पाषाण शिला  में तब्दील हों बंजर से खेत खलिहान हुए जाते हैं .
शब्द बाण व्यर्थ उड़ते से लगे हवा में
शाही किले की प्राचीर से हम ,अहसास खिदमतगार हुए जाते हैं. 

                                                           -- विजयलक्ष्मी 

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