Thursday 28 June 2012

उजाड़ कर बाग हरे, पत्थर के जंगल उगा रहा है
जाने मानुष किस दिशा में जा रहा है ..
दिल भी पत्थर कर डाले उसने ,तन को महल सा चिन लिया ..
सजा कंगूरे स्वर्ण रंगो के प्रदर्शनी की दुकान सा सजा लिया ..
मन में कितने खोट भरे हों, कौन देखने जाता है ..
ये तन माटी का जो पुतला..कागज धन से सजा लिया ,
भूल गया मन का मनका ,कैसा जीव हुआ मानुष ,
भूल गया पल भर में मरना यहीं सब कुछ रह जायेगा ...
मुट्ठी बंधे आया जग में हाथ पसारे जायेगा .-विजयलक्ष्मी

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