Saturday 23 June 2012

रोटी की खातिर ...


कहने हों जग में "बेटी" बेमिसाल हैं 
हर "मातपिता" को होता बहुत दुलार है ..
फिर कैसी "ममता "की मारी ,बिक रही "बाजारों" में ..
बेचने वाले वही लोग जो रखते बंद थे "तालों "में ..
इक दिन जब "चुनरी "न पहनी डाट पिलाई "भाई " ने ..
आज एक "रोटी "की खतिर "बोली" लगाईं  "बाप "ने ..
जाने "फन "उठाया दुनिया के" किस पाप "ने ..
"रोग बीमारी "कुछ होता मार डालते ...
स्वार्थ हुआ है कितना अंधा ..आज उसी को हैं बेच डालते ..
पहले मारा "जन्म से पहले "फिर "रक्षक ने मार दहेज" के नाम दिया ..
एक "रवायत नई" चली है अब "रोटी की खातिर" नाम दिया.-विजयलक्ष्मी  

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