Tuesday 22 May 2012

मजदूरी का वादा


स्मृतियों के पदचाप सुनाते है करुण पुकार ..
देते है आवाज संसद अब तो जागो ...
जनपथ के रस्ते होती लूट ...
कुछ इंतजाम करो ....
भ्रटाचार की पोथी को आग लगाने का समान करो ...
आदम की लड़की रंग राग में बेच चुके जो ....
उनका भी अभिमान जरा सा चूर करो ...
मन:पटल के चित्रण की आवाज सुनो ,
रोज रात खाने की खातिर रोती है ...झुग्गी की गुड्डी
मेरे पडोस में बहती नदिया नित नए रूप में गंदी होती ..
घर के कुत्ते भी बिस्किट और मलाई उड़ाते है ..
सफेदपोश रोज नई गाड़ी में मौज मानते हैं...
है कैसा व्यापर अमीर और अमीर हुआ जाता है ...
मेरे घर का एक पेड़ बहुत पानी पीता है,..
गमलों में पुष्पों को सजाते है सब ... और जंगल को ...
और जंगल को ढाक मकोड़े लगा रहे है वो सब...
कविता हंसती है हर ताली के साथ...चलती है साथ साँझ सहर अब ...
बोलो क्या आवाज सुनी है उसकी ... मंथर मंथर..?
जनपथ के रस्ते होती लूट ....
चले आये क्यूँ राजपथ से तुम भी आगे ...
तितलियों की पिचकारी के रंग अभी चुप बैठे हैं कैसे ?
मौसम रंगों का शायद अभी नहीं आया उनका ...या कुछ बारिश की उम्मीद रही होगी ...
चलो चलना ही है अब ..रुकने का क्या काम ..?
मजदूरी का वादा है ..क्या देखनी सुबह या शाम ...--विजयलक्ष्मी


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